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चिड़ी चोंच भर ले गई ,

आह्वान
आह्वान
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तेज बारिश लगभग थम चुकी थी ! रात भर से बरसते मेघ मानो अब विश्राम के मूड में थे ! बिस्त्तर पर लेटे-लेटे मैंने खिड़की के बाहर झाँका,बूँदें अब भी
टपक रहीं थी !हालांकि सुबह हो चुकी थी,लेकिन अँधेरे ने अपना दामन पूरी तरह समेटा नहीं था !आँगन में छप-छप गिरती बूंदों के बीच एक गौरैया बारिश
से धुल चुके फर्श से कुछ चुगती दिखी,शायद कोई कीड़ा था,जो उसके बिल में पानी घुसने के कारण बाहर आ गया था !कीड़े को चोंच में दबा चिड़िया सामने खम्भे पर लटके मीटर के डब्बे में घुस गई !कुछेक छड़ो बाद वह पुन्हां आँगन के फर्श पर फुदकने लगी !फिर कुछ चोंच में दबाया और उड़ चली डिब्बे की ओर !काफी देर तक यही क्रम चलता रहा,एक ओर बूंदों का टपकना ज़ारी था,दूसरी ओर यह !
बिरजू चाय की प्याली के साथ आज का भीगा हुआ अखबार भी ले आया !बहुत सम्हाल कर मैंने अखबार को बिस्त्तर पर बिछा लिया,मानो खातून के खजाने का नक्शा हो !वही समाचार,वही आन्दोलन,वही लाठी,
वही सरकार की हठधर्मिता,मानो उसे कोई सरोकार नहीं !कैसा सत्याग्रह ? काहे का प्रजातंत्र ?अरे, वोटिंग हुई है, वो भी प्रजातांत्रिक तरीके से !ओर उसमे जीत कर आये है ये लोग (आपको क्या मतलब कैसे जीते ? कितने खर्च किये ? ) अब जब वे सांसद बने है तो सरकार अपने ही तरीके से चलाएंगे न ?अरे भाई अपना नफा नुक्सान तो पहले देखेंगे न !क्या बार-बार आप भ्रस्टाचार की बात करते है !
कोई दो रूपया का आलू खरीदता है तो उलट-पलट कर देखता है !यहाँ ससुरा चालीस-चालीस साल इनको राजनीति करते हो गया,आधी जिंदगी लगा दिए जनता की सेवा में,आखिर इनका भी तो कोई हक बनता है !अरे दो चार लाख करोड़ हज़म भी कर लिए तो हक है भाई !शास्त्र कहते है “चिड़ी चोंच भर ले गई,नदी न घट्यो नीर “और आप चिंता करते है,डोंट वरी, हम फिर टैक्स देंगे,और देंगे चाहे हमें आभाव में ही क्यों न जीना पड़े !लेकिन टैक्स देना नहीं छोड़ेंगे !हम देशभक्त लोग है,देश के लिए जान तक दे सकते है,फिर टैक्स देना तो हमारे लिए हाथ का मैल है !
इतिहास गवाह है,सदियों से यह मुल्क लुटता चला आ रहा है !मुगलों ने लूटा,फिरंगियों ने लूटा, फिर ये तो अपने लोग है,अपनों का कभी बुरा नहीं मानना चाहिए !आखिर देश का धन देशवासियों के पास ही तो है !इसमें बुरा क्या है ? घी खिचड़ी में ही है न ?और खिचड़ी पेट में !फिर क्या फर्क पड़ता है पेट किसका है ? पेट तो पेट है !
हम हिन्दुस्तानी पेट से ऊपर कभी उठ ही नहीं पाए !हमेशा पेट से नीचे ही सोचेंगे ! दुनियां चाँद से आगे जा रही है,और हम है की अभी पेट पर ही अटके है !अरे भाई पेट के ऊपर दिल है, दिमाग है,और अगर दिमाग है.तो तिकड़म आएगी ही और यदि तिकड़म आई तो भ्रस्टाचार को कौन रोक सकता है ?उसे तो फलित होना ही है ! अब इसमें प्रकृति को तो दोष नहीं दे सकते न,की उसने दिमाग ही क्यों दिया ?न होता बांस न बजती बंसरी !शायद इसी लिए आम हिन्दुस्तानी दिमाग का इस्तेमाल करने से कतराते है !क्यों की यही भ्रस्टाचार की जड़ है !परिणाम स्वरुप हम पेट के नीचे ही मगन है !ताकि भ्रस्टाचार से बचे रहें !
चाय की प्याली ठंडी हो चली थी,और अखबार बिस्तर की गर्मी से सूख चूका था,चिड़िया न जाने कब कहाँ गई ?लेकिन बूंदों का क्रम यथावत था !

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