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पिछले कई दिनों से देखा कुछ ब्लागर मित्र किसी स्थापित धर्म का चोला पहन उसके गुण-गान में जुट जाते हैं !मानो उनका धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है,ऐसी स्थिति में किसी अन्य स्थापित धर्म के व्यक्ति को यह गुण-गान हज़म नहीं होता !और न होना स्वाभाविक भी है ! आखिर धर्म के साथ-साथ व्यक्ति का अहंकार भी तो जुड़ा है,और एक अहंकार किसी दूसरे अहंकार को कैसे बर्दाश्त करेगा ?
धर्म तो भाव है, अनुभूति है, उस परमात्मा की !जब अंतर्मन में प्रेम, त्याग ,कोमलता, करूणा के भाव उठते हैं तब व्यक्ति के भीतर बीज-रूप में छुपा धर्म का पौधा पनपता है, जो उसका नितांत व्यक्तिगत है !जिसके फूलों की गंध से उसके व्यक्तित्व में निखार आता है ! तब सारे भेद मिट जाते हैं सारी दीवारें ढह जाती हैं सब-कुछ एकदम साफ हो जाता है अपने-पराये का भेद नहीं रहता ! धार्मिकता जाति-बन्धनों से कहीं दूर है !स्थापित नियम कायदे / प्रचलित धार्मिकता के लिए हो सकते हैं लेकिन वास्तविक धार्मिकता इन आडम्बरों से कोसों दूर है !
धार्मिक होने के लिए किसी भाषा ज्ञान की आवश्यकता नहीं ! किसी ग्रन्थ के अध्ययन की ज़रूरत नहीं !किसी संप्रदाय के लेबल की ज़रूरत नहीं ! सच तो यह है की इंसान पैदा ही धार्मिक होता है क्यों की उस अवस्था में उसे किसी धर्म का ज्ञान नहीं होता उसे तथाकथित धार्मिक तो हम बनाते हैं अपना प्रचलित धर्म थोप कर जब की वो सहजता से इसे स्वीकार नहीं करता !लेकिन यहाँ उसे स्वीकारने अथवा अस्वीकारने का समय ही कहाँ !जब तक वो इसे समझने की अवस्था में आये तब तक तो उस पर किसी प्रचलित धर्म की मोहर लग चुकी होती है !
यह भी सत्य है की हम सब थोपे गए धर्म के अनुयायी मात्र हैं !धार्मिक तो कत्तई नहीं !क्योकि हमने कभी भी धर्म को जानने-समझने की चेष्टा ही नहीं की ! दरअसल बगैर जाने -समझे ही हमारा कम तो चल ही रहा था फिर क्या ज़रूरत क्यों बेकार की बात में समय बर्बाद करें !बहुत सारे काम हैं हटाओ इस झंझट को ! यह हमें झंझट लगता है !कई पढ़े-लिखे समझदार ( ? ) लोग कहते सुने ,यह धर्म-वर्म सब बेकार की बातें हैं कुछ हासिल नहीं होने वाला इन बातों से ! गौर से देखा जाये तो उनकी बातों में सच्चाई तो है !क्योंकि उन्होंने इन्हीं प्रचलित धर्मों को देखा-समझा है !और पाया की धर्म से इंसान का कोई भला नहीं होने वाला !
सच्चाई तो यह है की इनका धर्म से कोई साक्षात्कार हुआ ही नहीं !बात ऐसी है मान लें आपने कभी गुलाब जामुन खाए ही नहीं और आपसे पूछा जाये की बताइए गुलाब-जामुन का स्वाद कैसा है ?आपने सुना है ये मीठे होते हैं अतः आपका उत्तर होगा मीठे !किन्तु उस मिठास के साथ जो सुगंध -स्वाद है उसका क्या ? यह आपको नहीं मालूम क्यों की गुलाब-जामुन तो आपने कभी खाए ही नहीं ! ठीक इसी तरह ये प्रचलित धर्म हैं जिनसे आप तथा-कथित धार्मिक तो बनते हैं लेकिन धर्म से अनभिज्ञ !
धार्मिक व्यक्ति आस्तिक होता है वह अपने क्रित्य में असीम की कृपा देखता है तब चित्त आनंद से भर जाता है ! दुःख से भरा चित्त नास्तिक सा है ! नास्तिकता Gravitation है जो सदैव नीचे की ओर खींचती है ! और आस्तिकता Grace प्रसाद /अनुग्रह जो ऊपर की ओर जाता है !
कुलमिलाकर धर्म अनुभव/महसूस करने की कला है !मंदिर की घंटियों में ,अज़ान के स्वर में,चिड़ियों के चहचहाने में ,झरने के कल-कल करते संगीत में वृक्षों के लहलहाने में ! इंसान द्वारा इंसान की भलाई के लिए उठा हर कदम धर्म ही तो है !प्यार भाई-चारे का हर सन्देश धर्म है !दुसरे के दुःख को अपना दुःख समझना ही धर्म है स्वयं के अन्दर जाकर स्वयं को देखना धर्म है ! अततः धार्मिक होना फक्र की बात है !
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